Monday, September 21, 2009

और मैं चल पड़ा...

मेरे दर्द में कोई कभी रोने नहीं आया
मेरे ज़ख्मो पर मरहम कोई मलने नहीं आया


सभी मुझ को पता देते रहे मंजिल का बार बार
मगर कोई भी मेरे साथ में चलने नहीं आया


उजालो में भी कई बार बुलाया 
पर मैंने उन्हें भी हाथ न लगाया 


पर जब चड़ने लगा अंधेरा चाँद को घेर कर
तब मैंने ज़िन्दगी का दीपक फिर से जलाया


गम को सीचना मेरी आदत नहीं
क्या हुआ गर ज़िन्दगी ने मुझे  कुछ देर रुलाया


धुप अटकी थी बादलो के बीच कहीं
मैंने खीच कर उसे ,उत्सव मनाया


हर उजाले  से अब मेरी दोस्ती है यारो 
कौन कहता है की मुझे कभी किसी में था सताया 


मैं गिरा , गिर कर उठा , फिर चला
ज़िन्दगी का जो मज़ा तब आया ऐसा कभी नहीं आया....


और मैं चल पड़ा ज़िन्दगी जीने...



3 comments:

www.writer.co.in said...

बहुत अच्छा लिखा है तुमने मानसी। ख़ुशी भी है और फक्र भी तुम पर।

Mansi said...

bahut bahut dhanyawad

Unknown said...

its beautiful... something that has left me speachless...